बैंकिंग के सुधारों पर विशेषज्ञों की राय, सरकार को चाहिए बाजार को संभाले, बैंकों को नहीं

टीम भारत दीप |
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जो बैंक मर्ज हुए हैं उनका आधार भी स्पष्ट नहीं है।
जो बैंक मर्ज हुए हैं उनका आधार भी स्पष्ट नहीं है।

एनपीए को लेकर लाई गई कंप्यूटराइज्ड नीति ने डिफाल्टरों की लाइन लगा दी। वहीं कोविड 19 के बाद लोनमाफी ने फिर से उन्हें फलने फूलने का मौका दे दिया है।

बैंकिंग डेस्क। केंद्रीय बजट की घोषणा के बाद भारत में सबसे ज्यादा उथल-पुथल भरा सेक्टर बैंकिंग का बन गया है। वित्तमंत्री की दो पब्लिक सेक्टर बैंक को निजी हाथों में सौंपने की घोषणा का एक ओर बाजार स्वागत कर रहा है, वहीं बैंक के कर्मचारियों और विशेषज्ञों के बीच कई तरह की शंकाएं हैं। ऐसे में द इंडिया फोरम के लिए लिखे अपने लेख में एमएस श्रीराम ने भारत में बैंकिंग के सुधारों को ‘टाॅकिंग टोक्यो, लुकिंग लंदन‘ जैसी स्थिति कहा है। 

एमएस श्रीराम आईआईएम बंगलूरू में सेंटर आॅफ पब्लिक पाॅलिसी के फैकल्टी हैं। लेख अंग्रेजी में है और काफी लंबा है, लेकिन बात में दम है इसलिए हम इसका लव्वोलुवाब आपके लिए हिंदी में लेकर आए हैं। 

भारत में सुधारों की गुंजाइश रीयल सेक्टर के लिए है लेकिन सरकार की लाठी हमेशा फाइनेंशियल सेक्टर पर ही चलती है। पाॅलिसी मेकिंग में हमेशा फाइनेंशियल सेक्टर बाजार को लीड करता है लेकिन इसके रिटर्न में बाजार की जिम्मेदारी कुछ भी नहीं है। इसी का नतीजा बैंक भुगतते हैं। 

इतना ही नहीं पब्लिक सेक्टर बैंकों पर जिम्मेदारी सिर्फ बाजार से जूझने की नहीं सरकार की योजनाओं के अनुरूप जनहित में काम करने की भी है। ऐसे में बैंक अगर सख्ती दिखाएं तो जनहित प्रभावित होता है और न दिखाएं तो बाजार उसके हाथ से निकल जाता है। 

सरकार की नीतियों में विरोधाभास इस प्रकार का है कि जहां एनपीए को लेकर लाई गई कंप्यूटराइज्ड नीति ने डिफाल्टरों की लाइन लगा दी। वहीं कोविड 19 के बाद लोनमाफी ने फिर से उन्हें फलने फूलने का मौका दे दिया है। वर्तमान में बैंक जिस फायदे की बात कर रहे हैं, वह सिर्फ और सिर्फ मोराटोरियम पाॅलिसी के कारण है। जबकि, असली क्राइसिस तो इसके बाद आनी है। 

2016 में नोटबंदी की बात करें तो जहां इसे बैंकों को सशक्त करने वाला कदम कहा जा रहा था, उससे कहीं ज्यादा बैंकों को इसके प्रभावों से निपटने में जूझना पड़ा। नोटबंदी ने बैंकों का ध्यान बाजार से हटाकर इस नई परिस्थिति में खुद को ढालने में लगा दिया। 

सिस्टम उबरा ही था कि जीएसटी जैसे सुधारों ने बाजार से नकदी प्रवाह को प्रभावित किया। बतौर एमएस श्रीराम बैंकों के मर्जर को लेकर सरकार का नजरिया अब तक साफ नहीं है। जो बैंक मर्ज हुए हैं उनका आधार भी स्पष्ट नहीं है। यही ‘टाॅकिंग टोक्यो, लुकिंग लंदन‘ जैसी स्थिति है।  

अब सवाल बैड बैंक की स्थापना को लेकर है। आरबीआई इसका सुझाव 2011 में ही दे चुकी है जिसे अब जाकर जाकर लागू किया जा रहा है। इसमें बैंकों से एनपीए वाले पार्ट को हटा दिया जाएगा जिसे फोकस के साथ केवल बैड बैंक ही हैंडल करेंगे।

लेकिन बैंकों को जरूरत पैसे की है जिसकी पूर्ति करना सरकार का लक्ष्य होना चाहिए। सरकार इसके लिए निवेशकों की ओर देख रही है। यदि वास्तव में सरकार फाइनेंशियल सेक्टर को मजबूत करना चाहती है तो उसे रीयल सेक्टर पर ध्यान देना होगा। बैंकों को संभालने में आरबीआई सक्षम है, सरकार को चाहिए वह बाजार को संभाले।

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