गुरू की महिमाः कबीर व तुलसीदास

टीम भारत दीप |
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तुलसीदास सगुणोपासक हैं और कबीर निगुर्णाेंपासक
तुलसीदास सगुणोपासक हैं और कबीर निगुर्णाेंपासक

तुलसी के लिए गुरू के चरण ही कमल हैं और वे पदम के समान अपने गुरू के चरणों की वंदना करते हैं।

भारतीय संस्कृति में गुरू का महत्व सबसे ज्यादा है। सनातन धर्म में गुरू का भवसागर से पार ले जाने वाला बताया गया है। अर्थात् वह गुरू ही हैं जो सब कुछ पूर्ण होने के बाद आपको आखिरी मार्ग दिखाएंगे। इसीलिए कबीर दास ने कहा भी है कि शीश दिए जो गुरू मिले तौ भी सस्ता जान। 

हिंदी काव्य जगत में कबीर और तुलसीदास दो ही ऐसे कवि हैं जिन्होंने अपनी रचनाओं में गुरू को सबसे ज्यादा महत्व दिया है। इनमें से भी कबीर अनन्य हैं। कबीर के लिए उनके गुरू ही सबकुछ थे। इसलिए उन्होंने गुरू को विषय बनाकर गुरू की महत्ता का गुणगान किया है। इसलिए जब भी गुरू की बात आती है तो हम कबीर को ही याद करते हैं। उन्हें ही पढ़ते हैं। 

गोस्वामी तुलसीदास के सर्वाधिक लोकप्रिय ग्रंथ श्रीरामचरितमानस की शुरूआत ही इस प्रकार है कि- 

बंदउ गुरू पद पदम परागा, सुरचि सुबास सरस अनुरागा।

तुलसीदास श्रीरामचरितमानस की शुरूआती चैपाईयों को अपने गुरू को ही समर्पित करते हैं। इतना ही नहीं हनुमान चालीसा में उन्होंने लिखा है-

श्री गुरू चरन सरोज रज, निज मन मुकुर सुधार।
और
जै जै जै हनुमान गोसाईं, कृपा करहु गुरूदेव की नाहीं।

अर्थात् तुलसीदास जी हनुमान जी से भी गुरू के समान की कृपा करने की याचना कर रहे हैं। तुलसी के लिए गुरू के चरण ही कमल हैं और वे पदम के समान संुदर अपने गुरू के चरणों की वंदना करते हैं। श्रीरामचरितमानस के कथानक में भी उन्होंने गुरू पद को हमेशा श्रेष्ठ रखा है। चाहे राजा दशरथ हों या मर्यादा पुरूषोत्तम राम सभी गुरू की आज्ञा के बिना कोई कार्य नहीं करते। 

कबीर की भाव कौशल इस दिशा में ज्यादा है। कबीर असमंजस में हैं कि- 

गुरू गोबिन्द दोउ खडे़ काके लागौं पांव। 

फिर कबीर ही इससे बाहर लाते हैं कि 

सतगुरू की महिमा अनत, अनत किया उपघार। 

यानी कबीर के लिए गुरू की महत्ता अधिक है। इसका कारण यह भी है कि कबीर निगुर्णाेंपासक हैं और तुलसीदास सगुणोपासक हैं। 

बाॅलीवुड के महानायक अमिताभ बच्चन ने आज अपने इंस्टाग्राम पर एक तस्वीर शेयर की जिसमें उनके पिता हरिवंश राय बच्चन उन्हें किताब से कुछ पढ़ा रहे हैं। अमिताभ ने इस तस्वीर के साथ कबीर का दोहा लिखा- 

कबीर ते नर अंध हैं, गुरू को कहते और। 
हरि रूठे गुरू ठौर है, गुरू रूठे नहीं ठौर।।

यानी यदि भगवान भक्त से नाराज हैं तो गुरू उनकी रक्षा कर सकते हैं लेकिन गुरू के रूठने पर कोई दूसरा रास्ता नहीं है। तुलसीदास गुरू के उपासक हैं लेकिन कबीर गुरू से मिलने के बाद उनमें ही मिल जाते हैं। उन्होंने लिखा है- 

कबीर गुरू गरवा मिल्या, रलि गया आटे लूंण।
जाति-पांति-कुल सब मिटै, नांव धरैगो कौंण।।

यानी कबीर जब गुरू से मिले तो उनका मिलना इस प्रकार था जैसे आटा गूंथथे समय उसमें नमक मिल जाता है। यानी उनका मिलन एकात्म हो जाने का है। तुलसीदास जी अंतकाल में अपने रघुनाथ के पास जाने की कामना करते हैं- 

अंतकाल रघुवरपुर जाई, जहां जन्म हरिभक्त कहाई।

कबीर का दुनिया का क्रम गुरू से मिलने के बाद ही पूरा हो जाता है। वे गुरू से मिलकर ही मोक्ष को प्राप्त करते हैं- 

दीपक दीया तेल भर, बाती दई अघट्ट। 
पूरा किया बिसाहुणा, बहुरि न आवौं हट्ट।।

आप सभी को गुरू पूर्णिमा की शुभकामनाएं।


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